पाँचवाँ भाग
ढाँचागत संकट पूँजीवाद का व्यवस्थागत
संकट है। इसमें वित्तीय महा–संकट, दुनिया के अलग–अलग देशों और एक ही देश के भीतर अलग–अलग वर्गों के बीच बेतहाशा बढ़ती
असमानता, राजनीतिक पतनशीलता और चरम भ्रष्टाचार, लोकतन्त्र का खोंखला होते जाना और
राजसत्ता की निरंकुशता, सांस्कृतिक पतनशीलता, भोग–विलास, पाशविक प्रवृति, अलगाव, खुदगर्जी, और व्यक्तिवाद को बढ़ावा, अतार्किकता और अन्धविश्वास का बढ़ना, सामाजिक विघटन और पहले से मौजूद
टकरावों और तनावों का सतह पर आ जाना, प्रतिक्रियावादी
और चरमपंथी ताकतों का हावी होते जाना तथा पर्यावरण संकट, धरती का विनाश और युद्ध की विभीषिका
इत्यादि सब शामिल है। हालाँकि अपने स्वरूप, कारण
और प्रभाव के मामले में इन समस्याओं की अपनी–अपनी
विशिष्टता और एक–दूसरे से भिन्नता है, लेकिन ये सब एक ही जटिल जाला समूह में
एक–दूसरे से गुँथी हुई हैं तथा एक दूसरे
को प्रभावित और तीव्र करती हैं। इन सबके मूल में पूँजी संचय की साम्राज्यवादी
विश्व व्यवस्था है जो दुनिया भर के सट्टेबाजों, दैत्याकार
बहुराष्ट्रीय निगमों और अलग–अलग
सरकारों के बीच साँठ–गाँठ और टकरावों के बीच संचालित होती
है। इसका एक ही नारा है–
मुनाफा, मुनाफा, हर कीमत पर मुनाफा ।वैसे तो दुनिया की
तबाही के लिये आर्थिक संकट,
पर्यावरण संकट और युद्ध में से कोई एक
ही काफी है लेकिन इन विनाशकारी तत्वों के
एक साथ सक्रिय होने के कारण मानवता के आगे एक बहुत बड़ी चुनौती मुँह बाये खड़ी हैं।
कुल मिलाकार यह संकट ढाँचागत है और इसका समाधान भी ढाँचागत बदलाव में ही है।
इस बुनियादी बदलाव के लिये वस्तुगत
परिस्थिति आज जितनी अनुकूल है, इतिहास
के किसी भी दौर में नहीं रही है। इस सदी की शुरुआत में रूसी क्रांति के समय पूरी
दुनिया में मजदूर वर्ग की कुल संख्या दस करोड़ से भी कम थी, जबकि आज दुनिया की लगभग आधी आबादी, तीन अरब मजदूर हैं। इनमें बड़ी संख्या
उन मजदूरों की है जो शहरी हैं और संचार माध्यमों से जुड़े हुए हैं। इनके संगठित
होने की परिस्थिति पहले से कहीं बेहतर है। दूसरे, वैश्वीकरण–उदारीकरण–निजीकरण की लुटेरी नीतियों और उनके
दुष्परिणामों के चलते पूरी दुनिया में मेहनतकश वर्ग का असंतोष और आक्रोश लगातार
बढ़ता गया है। इसकी अभिव्यक्ति दुनिया के कोने–कोने
में निरंतर चलने वाले स्वत%स्फूर्त संघर्षों में हो रही है। तीसरे, आज उत्पादन शक्तियों का विकास उस स्तर
पर पहुँच गया है कि पूरी मानवता की बुनियादी जरूरतें पूरी करना मुश्किल नहीं। फिर
भी दुनिया की बड़ी आबादी आभाव ग्रस्त है और धरती विनाश के कगार पर पहुँच गयी है, क्योंकि बाजार की अंधी ताकतें और
मुनाफे के भूखे भेड़िये उत्पादक शक्तियों के हाथ–पाँव में बेड़ियाँ डाले हुए हैं। इन्हें काट दिया जाय तो धरती स्वर्ग
से भी सुन्दर हो जायेगी।
लेकिन बदलाव के लिये जरूरी शर्त– मनोगत शक्तियों की स्थिति भी क्या
अनुकूल है ? निश्चय ही आज दुनिया–भर में वैचारिक विभ्रम का माहौल है और
परिवर्तन की ताकतें बिखरी हुई हैं। ऐसे में निराशा और आशा, व्यक्तिवाद और सामूहिकता, अकेलापन और सामाजिकता, निष्क्रियता और सक्रियता, खुदगर्जी और कुरबानी, प्रगतिशीलता और प्रतिक्रियावाद, सभी तरह की प्रवृतियाँ समाज में
संक्रमणशील हैं। बुनियादी सामाजिक बदलाव में भरोसा रखने वाले मेहनतकशों और उनके
पक्षधर बुद्धिजीवियों का यह ऐतिहासिक दायित्व है कि जमीनी स्तर पर क्रान्तिकारी
सामाजिक शक्तियों को चेतनासम्पन्न और संगठित करें। वर्तमान मानव द्रोही, सर्वनाशी सामाजिक–आर्थिक ढाँचे के मलबे पर न्यायपूर्ण, समतामूलक और शोषणविहीन समाज की बुनियाद
खड़ी करने की यह प्राथमिक शर्त है, जिसके
बिना आज के इस चैतरफा संकट और विनाशलीला से निजात मिलना असम्भव है।
पहला भाग यहाँ पढ़ें
दूसरा भाग यहाँ पढ़ें
तीसरा भाग यहाँ पढ़ें
चौथा भाग यहाँ पढ़ें
पहला भाग यहाँ पढ़ें
दूसरा भाग यहाँ पढ़ें
तीसरा भाग यहाँ पढ़ें
चौथा भाग यहाँ पढ़ें
No comments:
Post a Comment