तीसरा भाग
जहाँ तक हथियारों की होड़ और युद्ध का
सवाल है, चरम परजीवी और मरणासन्न वित्तीय पूँजी के
इस युग का एक चारित्रिक लक्षण है युद्ध। पिछली एक सदी के इतिहास पर नजर डालें, तो शायद ही कोई दिन गुजरा होगा जब धरती
के किसी न किसी कोने में साम्राज्यवादियों द्वारा थोपा गया युद्ध या गृहयुद्ध जारी
न रहा हो। 1929 की महामंदी के बाद भी व्यापार युद्ध
और आगे चलकर विश्व युद्ध की फिजा बनने लगी थी और अपने संकट से निजात पाने के लिये
साम्राज्यवादी खेमे ने पूरी दुनिया को विश्वयुद्ध की आग में झोंक दिया था। आज
स्थिति हू–ब–हू
वैसी ही नहीं है। साम्राज्यवादी देशों के बीच फिलहाल आपसी कलह और टकराव का स्तर
वहाँ नहीं पहुँचा है कि वे आमने–सामने
खड़े हो जायें। खेमेबंदी और गलाकाट प्रतियोगिता उसी रूप में नहीं है। लेकिन संकट
गहराने के साथ ही अंदर–अंदर टकराव और मोर्चाबंदी चल रही है।
नये संश्रय कायम हो रहे हैं, एक
धु्रवीय विश्व की छाती पर नयी–नयी
गोलबन्दियाँ हो रही हैं। हालाँकि अभी अमरीका को सीधे चुनौती देने वाला कोई गुट
नहीं उभरा है, लेकिन विश्व रंगमंच की ढेर सारी घटनाएँ
बताती हैं कि अब बीस साल पहले वाली बात नहीं रही। ‘वाशिंगटन आम सहमति’ के
भीतर दरार दिखने लगे हैं,
चाहे ईरान पर प्रतिबन्ध की बात हो, सीरिया का मामला हो या संयुक्त राष्ट्र
संघ के विभिन्न प्रस्तावों का।
आने वाले समय का अनुमान लगाने के लिये
सितम्बर 2002 में प्रकाशित अमरीकी सुरक्षा रणनीति
दस्तावेज पर गौर करना जरूरी है, जिसमें
कहा गया था कि “हम दूसरी महाशक्तियों का मजबूती से
प्रतिरोध करेंगे।...हम महाशक्तियों के बीच प्रतियोगिता की
पुरानी बुनावट के दुबारा उभरने की सम्भावना के प्रति सचेत हैं। आज अनेक
महाशक्तियाँ आतंरिक संक्रमण से गुजर रही हैं, जिनमें
रूस, भारत और चीन अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।... यह अमरीकी सैन्य शक्ति की अनिवार्य
भूमिका को एक बार फिर सुनिश्चित करने का समय है। हमें अपने सुरक्षा बल का इस तरह
निर्माण और देखरेख करना जरूरी है, कि
कोई उसे चुनौती न दे सके।”
इस दस्तावेज में असली चिन्ता चीन को
लेकर थी । उल्लेखनीय है कि इसी के बाद से भारत में महाशक्ति बनने का शेखचिल्लीपन
पैदा हुआ जो बेबुनियाद है बहरहाल एक ध्रुवीय विश्व और साम्राज्यवादी समूह के
निर्विकल्प चै/ारी की यह चिंता वैश्वीकरण के इस दौर में काफी महत्त्व रखता है ।
सच तो यह है कि आज विश्व शांति के लिये
अमरीका से बढ़कर कोई दूसरा खतरा नहीं है । इसकी अर्थव्यवस्था भले ही लगातार नीचे
लुढ़क रही हो, सैनिक ताकत के मामले में आज भी इसका
कोई सानी नहीं। पिछले बीस बरसों से दुनिया के कुल सैनिक खर्च का एक तिहाई अकेले
अमरीका करता है। 2011 में यह खर्च चीन से पाँच गुना, रूस से दस गुना, भारत से पन्द्रह गुना और ईरान से चालीस
गुना था। आर्थिक रूप से संकट ग्रस्त होने के बावजूद अमरीका अपनी सैनिक वरीयता
बनाये हुए है और इसी से अपनी आर्थिक बर्बादी की क्षतिपूर्ती करता है। सैनिक
मामलों में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये उसके पास दो बहाने हैं– तेल के स्रोतों पर कब्जा और चीन का भय।
साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में
शामिल होने के बाद चीन का जिस तरह विकास और विस्तार हुआ है, उसे देखते हुए अमरीका का यह भय
बेबुनियाद नहीं। चीनी अर्थवयवस्था सट्टेबाजी पर नहीं, बल्कि मूलत% वास्तविक उत्पादन के दम पर
गतिमान है। दो सौ साल देर से पूँजीवादी दौड़ में शामिल होने के बावजूद, लगभग तीन दशकों तक वहाँ लागू की गयी
समाजवादी नीतियाँ और उत्पादक शक्तियों का चहुँमुखी विकास आज भी वहाँ पूँजीवादी
विकास का उत्प्रेरक है। दुनिया के कुल लौह अयस्क की सालाना खपत का 30 प्रतिशत, इस्पात 27 प्रतिशत, अल्युमिनियम 25 प्रतिशत, कोयला 31 प्रतिशत और पेट्रोलियम का 7
प्रतिशत अकेले चीन करता है। उसने ईरान से 7,000
करोड़ डॉलर का तेल और गैस खरीदने का सौदा किया है। चीन का कुल विदेशी मुद्रा भंडार
2,300 अरब डॉलर है, जिसमें से 1,700 अरब का निवेश डॉलर परिसंपत्तियों में
किया हुआ है। निश्चय ही ये तथ्य अमरीका को बेचैन करने के लिये काफी हैं।
अमरीकी नेशनल इंटेलिजेंस काउन्सिल ने
कहा था कि दुनिया की अर्थव्यवस्था में उभरती ताकतें अमरीकी वर्चस्व के लिये चुनौती
हैं। हालाँकि अभी यह मुख्यत% व्यापार, पूँजी
निवेश, नयी तकनोलॉजी और दूसरी कम्पनियों के
अधिग्रहण के इर्द–गिर्द ही है । व्यापार युद्ध को
वास्तविक युद्ध बदलते देर नहीं लगती। इसी बौखलाहट में अमरीका ने चीन को घेरने की
एक बहुआयामी और दीर्घकालिक योजना बनायी है, जिसमें
जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया में
इंटरसेप्टर मिसाइल लगाना,
ताईवान को हथियारों से लैस करना और
भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी शामिल हैं। हालाँकि चीन आज भी साम्राज्यवादी शक्ति
नहीं बना है, लेकिन भविष्य की गति इसी दिश की ओर
संकेत करती है।
आज साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच में
आपसी टकराव और उनके युद्ध आसन्न नहीं है, लेकिन
इसकी सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता। कारण यह कि एकाधिकारी पूँजी के
मरणासन्न और चिरस्थाई ढाँचागत संकट के मौजूदा दौर में साम्राज्यवाद अपने अस्तित्व
की रक्षा के लिये मानवता को युद्ध की आग में झोंकने से भी बाज नहीं आयेगा। पहला
और दूसरा विश्व युद्ध आर्थिक संकट का ही नतीजा था, जो अब पहले से भी विकट हो चुका है । विश्व युद्ध भले ही न हों, लेकिन उद्धत अमरीका का जो युद्धोन्माद
इराक, अफगानिस्तान और लीबिया में दिखायी दिया, वही अब इरान और सीरिया के खिलाफ दिख
रहा है। हालाँकि अमरीका की अब वैसी ही साख नहीं है जो इराक और अफगानिस्तान पर
हमले के समय थी।
पहला भाग यहाँ पढ़ें
दूसरा भाग यहाँ पढ़ें
चौथा भाग यहाँ पढ़ें
पाँचवाँ भाग यहाँ पढ़ें
पहला भाग यहाँ पढ़ें
दूसरा भाग यहाँ पढ़ें
चौथा भाग यहाँ पढ़ें
पाँचवाँ भाग यहाँ पढ़ें
No comments:
Post a Comment