चौथा भाग
इसमें कोई संदेह नहीं कि दुनिया को
तबाही की ओर ले जाने वाला विश्वव्यापी आर्थिक संकट हो, पर्यावरण विनाश का खतरा हो या युद्ध और
नरसंहार से होने वाली तबाही, ये
सब प्राकृतिक आपदाएँ नहीं हैं। इनके लिये
दुनियाभर के शोषकों द्वारा सोच–समझ
कर लागू की गयी नीतियाँ जिम्मेदार हैं। 1990 के
आसपास बर्लिन की दीवार ढहने, रूसी
खेमे के पतन और युगोस्लाविया के बिखराव के बाद विश्व–शक्ति–संतुलन में भारी बदलाव आया। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष और समाजवाद की
ओर से 1917 की रूसी क्रांति सम्पन्न होने के बाद
से ही पूँजीवादी खेमे को मिलने वाली चुनौती, वैसे
तो सोवियत संघ में ख्रुश्चोव द्वारा तख्तापलट के बाद से ही लगातार क्षीण हो रही थी, अब रूसी साम्राज्यवादी खेमे की रही–सही चुनौती भी समाप्त हो गयी। इसके
चलते पूरी दुनिया में अमरीकी चैधराहट वाले साम्राज्यवादी खेमे का पलड़ा भारी हो गया।
इस बदले हुए माहौल में विश्व पूँजीवाद
को दुनिया के बाजार, कच्चे माल के स्रोत और सस्ते श्रम पर
कब्जा जमाने का अनुकूल अवसर मिल गया। साथ ही आत्मनिर्भर विकास का सपना देखने वाले
तीसरी दुनिया के तमाम शासकों ने भी हवा का रुख देखते हुए साम्राज्यवाद के आगे
आत्मसमर्पण कर दिया। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की देख–रेख में ‘वाशिंगटन आमसहमति’ के नाम से एक नयी आर्थिक विश्व
व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया, जिसका
मकसद सम्पूर्ण विश्व में पूँजी की लूट के मार्ग से सभी बाधाओं को एक–एक कर हटाना था। तटकर और व्यापार पर
आम सहमति (गैट) की जगह डंकल प्रस्ताव के अनुरूप विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की
गयी, जिसने दुनिया–भर में बहुराष्ट्रीय निगमों, शेयर बाजार के निवेशकों और बैंकों की
लूट का रास्ता आसान बना दिया। प्रकृति के दोहन और मानव श्रमशक्ति के शोषण की
रफ्तार सारी सीमाएँ लाँघ गयी।
पूरी दुनिया पर पूँजीवाद की निर्णायक
जीत और ‘इतिहास के अंत’ की दुंदुभि बजाते हुए दुनिया के पैमाने
पर अतिरिक्त मूल्य की उगाही के लिये अमरीका की चैधराहट में आर्थिक नवउपनिवेशवादी
व्यवस्था का एक मुकम्मिल ढाँचा तैयार किया गया। इस पिरामिडनुमा ढाँचे के शीर्ष पर
अमरीका और उसके नीचे ग्रुप 7 के
बाकी देश काबिज थे। उनके नीचे हैसियत के मुताबिक दूसरे पूँजीवादी देश और सबसे
नीचे सम्राज्यवादी लूट और कर्ज–जाल
में फँसकर तबाह हो चुके तीसरी दुनिया के देशों को जगह दी गयी थी। इस नये लूटतंत्र
के अंदर माले गनीमत (लूट के माल) में किसे कितना हिस्सा मिलेगा, यह इस बात से तय होना था कि किस देश के
पास कितनी पूँजी है और टेक्नोलॉजी का स्तर क्या है। अब संकट की घड़ी में इसकी कीमत
भी अलग–अलग देशों को अपनी हैसियत के मुताबिक
ही चुकानी होगी, यानी क्रमश% ऊपर के पायदानों पर खड़े
साम्राज्यवादी देश कम प्रभावित होंगे और सबसे गरीब, तीसरी दुनिया के देश पहले से भी अधिक तबाही के शिकार होंगे।
साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की इन नीतियों
ने पूरी दुनिया को एकाधिकारी पूँजी संचय की एक ऐसी व्यवस्था के भीतर जकड़ दिया, जिस पर कहीं से कोई अंकुश, कोई नियंत्रण नहीं रहा। यही कारण है
कि इस नयी विश्व व्यवस्था में एक तरफ जहाँ अमीरी–गरीबी के बीच की खाई बेहिसाब चैड़ी होती गयी,
दुनिया–भर में अर्थव्यवस्थाएँ ठहराव और
वित्तीय उथल–पुथल का शिकार हुईं, दूसरी ओर हमारी धरती भी विनाश के कगार
पर पहुँचा दी गयी। लेकिन इस के बावजूद, विश्व
पूँजीवाद का अन्तर्निहित संकट हल होने के बजाय और भी घनीभूत, और भी असमाधेय होता गया। कारण यह कि
श्रम की लूट और पूँजी संचय जितने बड़े पैमाने पर होगा, पूँजी निवेश का संकट उतना ही विकट होता
जायेगा। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जो
पूँजीवाद के प्रारंभिक दौर,
मुक्त व्यापर के जमाने से ही बना रहा
है। लेकिन एकाधिकारी पूँजी के मौजूदा दौर में यह संकट इसलिए असाध्य है, क्योंकि यह अब सम्पूर्ण पूँजीवादी
व्यवस्था का ढाँचागत संकट बन चुका है।
प्रारम्भिक पूँजीवाद के दौर में आने
वाला आवर्ती संकट और वर्तमान ढाँचागत संकट के बीच साफ–साफ फर्क है। इसे स्पष्ट रूप से समझकर
ही भविष्य की सही दिशा तय की जा सकती है। क्योंकि नयी और जटिल समस्याओं का
समाधान पूराने सूत्रों और समीकरणों से नहीं हो सकता। आवर्ती या मीयादी संकट जब
भी आता था, तो उसका समाधान पहले से स्थापित ढाँचे
के भीतर ही हो जाता था, लेकिन आज का बुनियादी संकट समूचे ढाँचे
को ही संकट ग्रस्त कर देता है। यह किसी एक भौगोलिक क्षेत्र या उद्योग की किसी खास
शाखा तक या किसी खास अवधि तक सीमित नहीं होता। यह सर्वग्रासी होता है, जिसकी चपेट में वित्त, वाणिज्य, कृषि, उद्योग और सभी तरह की सेवाएँ आ जाती
हैं।
पुराने जमाने में उच्च स्तर कि
तकनोलॉजी और उत्पादकता वाले उद्योग गलाकाटू प्रतियोगिता और मंदी की मार से बच जाते
थे, लेकिन एकाधिकारी वित्तीय (सटोरिया)
पूँजी के वर्तमान दौर में,
सर्वग्रासी संकट की घड़ी में अब ये कारक
उद्धारकर्ता की भूमिका नहीं निभा सकते। उल्टे आज तकनीकी श्रेष्ठता वाले विकसित
पूँजीवादी देशों में ही संकट ज्यादा गहरा है।
दूसरे, ऐसा नहीं कि मंदी एक खास अवधि तक ही बनी रहे तथा पूँजी और उत्पादक
शक्तियों की क़ुर्बानी लेने के बाद फिर आर्थिक गतिविधियों का ग्राफ उठने लगे, जैसा पुराने दौर में हुआ करता था।अब
तो अर्थव्यवस्था मंदी में दोहरी, तिहरी
डुबकी लगाने के बाद भी उससे उबर नहीं पाती। सीमित समय के लिये चक्रीय क्रम में
आने वाली मंदी अब चिरस्थायी और दीर्घकालिक चरित्र ग्रहण कर चुकी है।
तीसरे, पुराने समय में मंदी किसी एक देश या एक भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित
होती थी। दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा, जो
पूँजीवादी दुनिया का अंग नहीं बना था, वहाँ
भले और ढेर सारी समस्याएँ थीं, लेकिन
पूँजीवादी संकट जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं था। पूँजी के वैश्वीकरण के मौजूदा
दौर में विश्व–अर्थव्यवस्था आपस में इस तरह
अंतरगुम्फित है कि धरती के किसी भी कोने से शुरू होने वाला संकट धीरे–धीरे पूरी दुनिया में पाँव पसारने
लगाता है। अमरीकी गृह ऋण संकट का बुलबुला फटने के बाद से अब तक की घटनाएँ इस बात
की जीती–जागती मिसाल हैं।
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